कल्पना

कल्पना

कल्पनाओं में जीना अच्छा लगता है
पर कल्पनाएँ कहाँ साकार होती हैं
जितनी खुशी होती है कल्पनाओं में रहकर
वास्तिवकता उतनी ही कठोर होती है
मन का क्या, उमंग का क्या, तरंग का क्या कहना
सोचा तुमको, चाहा तुमको ,पाकर अधूरापन रहा मुझको
साकार यह होता तो तुम होते, तुम्हारी नर्म बाँहों का झूला होता और मेरी अंगड़ाईयाँ होती,
सारी अधूरी कल्पनाएँ पूरी होती
दर्द अधूरी कल्पनाओं का कोई हमसे पूछे……
कभी कभी अपने होने का प्रश्न करती हूँ स्वयं से,
क्यों यह अधूरापन है मेरे लिए?
क्या मैं इंसा नहीं, प्यार के काबिल नहीं,
क्या नहीं चाहिए वह सब कुछ मुझे,
जो मुझे स्त्री होने की जरूरत है,
क्यों बेकरारी, बदनसीबी है मेरे लिए,
सब कुछ तो है जो एक स्त्री को स्त्री बनाता है,
जज़्बात है, प्यार है, देह है, सपने हैं,
फिर क्यूँ है अधूरापन क्यों ?
सब है……
पर कल्पनाएँ साकार कहाँ होती हैं…….
श्रीजा है ,सफ़र का अपनापन है
पर कहाँ ?
कल्पनाओं में….
जिंदगी की घनीभूत जिजीविषा है
पर कहाँ ?
कल्पनाओं में….

 

Illustrator: Payal Sahu

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Arti Pathak

Dr.Arti Pathak

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